फिर खेल खिलाता हू
फिर खिलखिलाता हूं
फिर मैं रूठ जाता हूं
कुछ को समझ आता हू
बहुत को नही,
समझ मै आता हू
जिन्हे अपना बनाना हो
हरिहर उन्हें दुनिया के रंग
दिखाता हूं
कभी पास बुलाता हू
कभी खुद दूर हो जाता हूं
कम जो प्यारे है उन्हें
मदारी बनाता हु
जिन्हे रखना हो अंगसंग
उन्हें दर्द के नाच नचाता हूं
एक एक सब नाते
उनके दूर भगाता हूं
रह सकू अकेला
मैं मन में मंदिर बनाता हु
सहज तो हू मै, छलिया
पर पूर्ण को कठिन हो जाता हूं
गर है हिम्मत सब खोने की
तो ही हाथ बढ़ा
वरना सहज जी,
गर्त गली में जा
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